नई दिल्ली (ईएमएस)। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा तीन कृषि कानूनों के निरस्तीकरण की घोषणा के उपरांत जिस तरह जीत और हार की रेखाएं खींची जा रही हैं उनमें किसानों की चिंता पृष्ठभूमि में जाती नजर आ रही है। किसानों के साथ जो हो रहा है या जो हुआ है उसकी असलियत को जानने का अवसर फिलहाल राजनीति के भंवर में कहीं खोया खोया-सा प्रतीत होता है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इसे ही इतिश्री मान लिया जाए? क्या किसानों एवं किसानी को उसी हालत में छोड़ दिया जाए जिसमें वे आजादी के सात दशक के उपरांत भी रहने के लिए मजबूर हैं? क्या सरकार का दायित्व मात्र कानून बनाने एवं उनके निरस्तीकरण के साथ ही समाप्त हो जाता है? इन सभी प्रश्नों के जवाब हमें किसान हित में ढूंढ़ने होंगे। देश में कृषि एवं किसानों की भूमिका से कोई भी प्रजातांत्रिक सरकार मुंह नहीं मोड़ सकती। जहां तक कृषि सुधारों का प्रश्न है देश के किसानों समेत सभी सरोकार पक्ष इस बात के साथ हैं कि किसानों की आर्थिक स्थिति में अविलंब एवं अविरल सुधार हो। जहां तक तीन कृषि कानूनों के मूल उद्देश्यों का संबंध है तो उनके बारे में कोई विरोध नहीं था। विरोध का मूल आधार सुधारों का माध्यम रहा है जिसमें प्राइवेट सेक्टर के प्रवेश के विचार ने किसानों की आशंकाओं को आक्रोश में बदल दिया। अतरू वर्तमान में सरकार एवं किसानों के पास जो विकल्प नजर आ रहा है वह यह है कि कृषि व्यवस्था में बदलाव के लिए सरकार एवं किसानों को एक-दूसरे के अधिक नजदीक आते हुए एक इकाई के रूप में कृषि विकास को आगे बढ़ाना होगा। इस कड़ी में कृषि उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाने, उसके लिए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार की उपलब्धता सुनिश्चित करने एवं कृषि विज्ञान को अधिक से अधिक विकसित करते हुए उसके कृषि विकास में योगदान को रेखांकित किया जा सकता है। इस दिशा में अब अधिकांश व्यवस्थाएं सरकारी तंत्र के माध्यम से उपलब्ध करवाने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। जिस ई-मार्केटिंग प्लेटफार्म की हम प्राइवेट मंडियों में व्यवस्था करने की बात कह रहे थे उन्हें सरकारी मंडियों में स्थापित करके किसानों को प्रतियोगी दरें एवं विस्तृत बाजार व्यवस्था उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। किसानों को अपने उत्पाद की कीमत का भूमंडल स्तर का आकलन एवं बाजार यदि उपलब्ध हो जाएं तो वे आढ़ती एवं बिचैलिए के बंधन से बाहर आ सकते हैं। साथ ही सरकार के स्तर पर इसके भी गंभीर प्रयास करने की जरूरत है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य बाजार व्यवस्था में ही उपलब्ध हो जाए। सरकार के स्तर पर हर फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदना संभवतरू आसान नहीं है, परंतु यह भी सत्य है कि 50 प्रतिशत लाभांश के साथ न्यूनतम कीमत सुनिश्चित किए बिना किसानों की हालत में सुधार की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। इसके लिए सरकार को कुछ नीतिगत फैसले ऐसे करने होंगे जिससे फसल का बाजार भाव ही न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊपर उठ जाए। सरसों एवं कपास के बाजार भाव की पृष्ठभूमि इस विषय में मार्गदर्शन कर सकती है। इसके साथ ही भारतीय खाद्यान्न की अंतरराष्ट्रीय कीमतें एवं वृहद बाजार की व्यवस्था भी सुनिश्चित करनी होगी। ज्वार एवं बाजरे जैसे खाद्यान्न के पैकेट न्यूयार्क एवं लंदन के शापिंग माल्स में डालर में बिकते हैं। भारतीय उत्पादों को वहां पहुंचाने का रास्ता भी खोजने की आवश्यकता है। इस कड़ी में भारतीय कृषि उत्पाद को अंतरराष्ट्रीय बाजार लायक बनाने के लिए उसकी गुणवत्ता में आमूलचूल सुधार की आवश्यकता है। इसके लिए कृषि विज्ञानियों को आगे आना होगा। भारतीय कृषि विज्ञान की विडंबना यह है कि अक्सर यह नौकरशाही एवं राजनीति की परछाई में खो जाता है। कृषि विज्ञानियों को इससे बाहर लाने की जरूरत है। सरकार की कई महत्वाकांक्षी कृषि योजनाएं वांछित परिणाम से दूर रह जाती हैं। मृदा स्वास्थ्य कार्ड जैसी महत्वाकांक्षी योजनाएं अव्यवस्था का शिकार हो रही हैं। किसान आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं को परिणामजनक भूमिका में लाना होगा। न केवल किसान आयोग का अध्यक्ष एक सक्षम कृषि विज्ञानी अथवा विशेषज्ञ हो, अपितु उसके सदस्य भी कृषि संबंधी विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ ही होने चाहिए। इनके कार्यालय भी राज्यों की राजधानियों की अपेक्षा कृषि विश्वविद्यालयों में खोलने चाहिए जहां उन्हें कृषि शोध की सभी सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। जहां कृषि सुधार की तकनीक का सतत विकास होता रहे। कृषि एवं उससे संबंधित सभी संस्थाओं को पूर्ण स्वायत्तता के साथ काम करने का अवसर देना होगा। निश्चित लक्ष्य के साथ काम करने की सख्त संस्कृति को विकसित करना अब भारतीय कृषि की आवश्यकता बन चुकी है। इसके साथ ही उत्पाद की गुणवत्ता के आधार पर उचित मूल्य एवं बाजार की उपलब्धता किसानों को स्वतरू ही आगे बढ़ाएगी। देश की राजनीति को किसानों के प्रति अपना दृष्टिकोण भी बदलना पड़ेगा। इसके लिए किसानों एवं राजनीतिक पार्टियों, दोनों को ही अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। दुर्भाग्यवश किसानों को मात्र एक वोट बैंक के रूप में देखा जाता है एवं किसानों की विडंबना यह है कि वह आसानी से इस बात को स्वीकार कर लेता है। इसके चलते किसान हित किसान राजनीति में गौण हो जाता है। इसके लिए सभी को ही राष्ट्रहित में अपना नजरिया बदलने की आवश्यकता है। किसान मात्र वोट बैंक से कहीं अधिक भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी हैं, जिनका विकास राष्ट्रीय संपन्नता का आधार है। अतरू राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सभी को किसानों एवं किसानी के यथार्थ से परिचित होना होगा। उनकी हालत के सुधार के लिए राजनीति से बाहर आकर शासक दलों को फैसले लेने होंगे।
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