आज के एक महत्वपूर्ण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा की शिकार महिला के हित को सुरक्षित रखने के संबंध में गुरुवार को एक अहम फैसला सुनाया। ‘साझा घर में रहने का अधिकार’ शब्द की व्यापक व्याख्या करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि इसे केवल वास्तविक वैवाहिक निवास तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता है, बल्कि संपत्ति पर अधिकार की परवाह किए बिना इसे अन्य घरों तक बढ़ाया जा सकता है।
जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बीवी नागरत्ना की पीठ ने उत्तराखंड की एक विधवा की याचिका पर यह फैसला दिया। शीर्ष अदालत ने नैनीताल हाई कोर्ट के फैसले को रद कर दिया। हाई कोर्ट ने निचली अदालत के उस फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें याचिकाकर्ता को घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम के तहत राहत देने से इन्कार कर दिया गया था। निचली अदालत ने कहा था कि संरक्षण अधिकारी द्वारा महिला के साथ घरेलू हिंसा की कोई रिपोर्ट नहीं दी गई है।
पीठ ने कहा कि कई हालात और परिस्थितियां हो सकती हैं और घरेलू रिश्ते में रहने वाली हर महिला साझा घर में रहने के अपने अधिकार को लागू कर सकती है, भले ही उसका साझा घर पर कोई अधिकार या लाभकारी हित न हो। उपरोक्त प्रविधान के तहत किसी भी महिला द्वारा उक्त अधिकार को स्वतंत्र अधिकार के रूप में भी लागू किया जा सकता है। पीठ की तरफ से 79 पेज का फैसला लिखते हुए जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि अगर उपरोक्त अधिनियम के तहत एक संरक्षण अधिकारी की घरेलू हिंसा की रिपोर्ट नहीं भी हो तो भी पीड़ित महिला के साझा वैवाहिक घर में रहने के अधिकार को लागू किया जा सकता है।
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पीठ ने कहा कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में यह आदर्श स्थिति है कि शादी के महिला अपने पति के साथ रहती है। किसी उचित कारण से वह अपने वैवाहिक साझा घर में नहीं भी रहती है तब भी उसे अपने पति के घर में रहने का अधिकार है। इसमें वह घर भी आता है जिसमें उसके पति के परिवार के सदस्य रहते हैं, भले ही वह किसी अन्य स्थान पर ही क्यों न हो।